PDFSource

भक्तामर स्तोत्र हिंदी | Bhaktamar Stotra PDF in Hindi

भक्तामर स्तोत्र हिंदी | Bhaktamar Stotra Hindi PDF Download

भक्तामर स्तोत्र हिंदी | Bhaktamar Stotra Hindi PDF Download for free using the direct download link given at the bottom of this article.

भक्तामर स्तोत्र हिंदी | Bhaktamar Stotra PDF Details
भक्तामर स्तोत्र हिंदी | Bhaktamar Stotra
PDF Name भक्तामर स्तोत्र हिंदी | Bhaktamar Stotra PDF
No. of Pages 12
PDF Size 0.48 MB
Language Hindi
Categoryहिन्दी | Hindi
Source www.jinvanisangrah.com
Download LinkAvailable ✔
Downloads369
If भक्तामर स्तोत्र हिंदी | Bhaktamar Stotra is a illigal, abusive or copyright material Report a Violation. We will not be providing its PDF or any source for downloading at any cost.

भक्तामर स्तोत्र हिंदी | Bhaktamar Stotra Hindi

नमस्कार मित्रों, आज इस लेख के माध्यम से हम आप सभी के लिए भक्तामर स्तोत्र हिंदी / Bhaktamar Stotra PDF in Hindi प्रदान करने जा रहे हैं। भक्तामर स्तोत्र एक अत्यंत ही प्रसिद्ध एवं प्रभावशाली स्तोत्र है। इस दिव्य स्तोत्र की रचना आचार्य मानतुंग जी द्वारा की गयी थी। माना जाता है कि इसकी रचना राजा भोज की धार नामक नगरी में हुई थी। इस स्तोत्र की रचना मूल रूप से संस्कृत भाषा में की गई है।

श्वेताम्बर मान्यताओं के अनुसार श्री भक्तामर स्तोत्र में 48 श्लोक हैं। जबकि जैन धर्म की एक मान्यता के अनुसार भक्तामर स्तोत्र में 44 श्लोक हैं। भक्तामर स्तोत्र के प्रत्येक श्लोक में मंत्र शक्ति निहित है। यह स्तोत्र अत्यंत ही फलदायी एवं पापनाशक स्तोत्र है। इस चमत्कारी स्तोत्र का प्रतिदिन पाठ करने से मनुष्य के जीवन में सुख-शांति एवं समृद्धि का आगमन होता है।

अगर कोई व्यक्ति मानसिक समस्या से बहुत समय से ग्रसित हो तो इस स्तोत्र का श्रद्धापूर्वक पाठ करने से विशेष लाभ मिलता है। इस स्तोत्र का नियमित रूप से जाप करने से भक्तों पर भगवान की विशेष कृपा होती है। श्री भक्तामर स्तोत्र का पाठ विशेष रूप से प्रातःकाल के समय करना ही उत्तम माना जाता है।

अगर आप संस्कृत भाषा में इस स्तोत्र का पाठ नहीं कर सकते तो आपकी सुवोइधा हेतु हमने यहाँ हिन्दी में यह स्तोत्र पीडीएफ़ प्रारूप में उपलब्ध करवाया गया है। आपको भी भगवान का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए इस स्तोत्र का पूर्ण श्रद्धा व विश्वास के साथ अवश्य पाठ करना चाहिए।

भक्तामर स्तोत्र हिंदी लिरिक्स / Bhaktamar Stotra Hindi Lyrics PDF

सुर-नत-मुकुट रतन-छवि करें,अंतर पाप-तिमिर सब हरें ।
जिनपद वंदूं मन वच काय, भव-जल-पतित उधरन-सहाय ।।१।।

श्रुत-पारग इंद्रादिक देव, जाकी थुति कीनी कर सेव |
शब्द मनोहर अरथ विशाल, तिन प्रभु की वरनूं गुन-माल ||२||

विबुध-वंद्य-पद मैं मति-हीन, हो निलज्ज थुति मनसा कीन|
जल-प्रतिबिंब बुद्ध को गहे, शशिमंडल बालक ही चहे ||३||

गुन-समुद्र तुम गुन अविकार, कहत न सुर-गुरु पावें पार |
प्रलय-पवन-उद्धत जल-जंतु, जलधि तिरे को भुज बलवंतु ||४||

सो मैं शक्ति-हीन थुति करूँ,भक्ति-भाव-वश कछु नहिं डरूँ |
ज्यों मृगि निज-सुत पालन हेत, मृगपति सन्मुख जाय अचेत |५||

मैं शठ सुधी-हँसन को धाम, मुझ तव भक्ति बुलावे राम |
ज्यों पिक अंब-कली परभाव, मधु-ऋतु मधुर करे आराव ||६||

तुम जस जंपत जन छिन माँहिं, जनम-जनम के पाप नशाहिं |
ज्यों रवि उगे फटे ततकाल, अलिवत् नील निशा-तम-जाल ||७||

तव प्रभाव तें कहूँ विचार, होसी यह थुति जन-मन-हार |
ज्यों जल कमल-पत्र पे परे, मुक्ताफल की द्युति विस्तरे ||८||

तुम गुन-महिमा-हत दु:ख-दोष, सो तो दूर रहो सुख-पोष |
पाप-विनाशक है तुम नाम, कमल-विकासी ज्यों रवि-धाम ||९||

नहिं अचंभ जो होहिं तुरंत, तुमसे तुम-गुण वरणत संत |
जो अधीन को आप समान, करे न सो निंदित धनवान ||१०||

इकटक जन तुमको अवलोय, अवर विषै रति करे न सोय |
को करि क्षार-जलधि जल पान, क्षीर नीर पीवे मतिमान ||११||

प्रभु! तुम वीतराग गुण-लीन, जिन परमाणु देह तुम कीन |
हैं तितने ही ते परमाणु, या तें तुम सम रूप न आनु ||१२||

कहँ तुम मुख अनुपम अविकार, सुर-नर-नाग-नयन-मन हार |
कहाँ चंद्र-मंडल सकलंक, दिन में ढाक-पत्र सम रंक ||१३||

पूरन-चंद्र-ज्योति छविवंत, तुम गुन तीन जगत् लंघंत |
एक नाथ त्रिभुवन-आधार, तिन विचरत को करे निवार ||१४||

जो सुर-तिय विभ्रम आरम्भ, मन न डिग्यो तुम तोउ न अचंभ |
अचल चलावे प्रलय समीर, मेरु-शिखर डगमगें न धीर ||१५||

धूम-रहित बाती गत नेह, परकाशे त्रिभुवन-घर एह |
वात-गम्य नाहीं परचंड, अपर दीप तुम बलो अखंड ||१६||

छिपहु न लुपहु राहु की छाहिं, जग-परकाशक हो छिन-माहिं |
घन-अनवर्त दाह विनिवार, रवि तें अधिक धरो गुणसार ||१७||

सदा उदित विदलित तममोह, विघटित मेघ-राहु-अवरोह |
तुम मुख-कमल अपूरब चंद, जगत्-विकाशी जोति अमंद ||१८||

निश-दिन शशि रवि को नहिं काम, तुम मुख-चंद हरे तम-धाम |
जो स्वभाव तें उपजे नाज, सजल मेघ तें कौनहु काज ||१९||

जो सुबोध सोहे तुम माँहिं, हरि हर आदिक में सो नाहिं |
जो द्युति महा-रतन में होय, कांच-खंड पावे नहिं सोय ||२०||

सराग देव देख मैं भला विशेष मानिया |
स्वरूप जाहि देख वीतराग तू पिछानिया ||
कछू न तोहि देखके जहाँ तुही विशेखिया |
मनोग चित्त-चोर ओर भूल हू न पेखिया ||२१||

अनेक पुत्रवंतिनी नितंबिनी सपूत हैं |
न तो समान पुत्र और मात तें प्रसूत हैं ||
दिशा धरंत तारिका अनेक कोटि को गिने |
दिनेश तेजवंत एक पूर्व ही दिशा जने ||२२||

पुरान हो पुमान हो पुनीत पुण्यवान हो |
कहें मुनीश! अंधकार-नाश को सुभानु हो ||
महंत तोहि जान के न होय वश्य काल के |
न और मोहि मोक्ष पंथ देय तोहि टाल के ||२३||

अनंत नित्य चित्त की अगम्य रम्य आदि हो |
असंख्य सर्वव्यापि विष्णु ब्रह्म हो अनादि हो ||
महेश कामकेतु जोगि र्इश योग ज्ञान हो |
अनेक एक ज्ञानरूप शुद्ध संतमान हो ||२४||

तुही जिनेश! बुद्ध है सुबुद्धि के प्रमान तें |
तुही जिनेश! शंकरो जगत्त्रयी विधान तें ||
तुही विधात है सही सुमोख-पंथ धार तें |
नरोत्तमो तुही प्रसिद्ध अर्थ के विचार तें ||२५||

नमो करूँ जिनेश! तोहि आपदा निवार हो |
नमो करूँ सु भूरि भूमि-लोक के सिंगार हो ||
नमो करूँ भवाब्धि-नीर-राशि-शोष-हेतु हो |
नमो करूँ महेश! तोहि मोख-पंथ देतु हो ||२६||

तुम जिन पूरन गुन-गन भरे, दोष गर्व करि तुम परिहरे |
और देव-गण आश्रय पाय,स्वप्न न देखे तुम फिर आय ||२७||

तरु अशोक-तल किरन उदार, तुम तन शोभित है अविकार |
मेघ निकट ज्यों तेज फुरंत, दिनकर दिपे तिमिर निहनंत ||२८||

सिंहासन मणि-किरण-विचित्र, ता पर कंचन-वरन पवित्र |
तुम तन शोभित किरन विथार, ज्यों उदयाचल रवि तम-हार ||२९||

कुंद-पुहुप-सित-चमर ढ़ुरंत, कनक-वरन तुम तन शोभंत |
ज्यों सुमेरु-तट निर्मल कांति, झरना झरे नीर उमगांति ||३०||

ऊँचे रहें सूर-दुति लोप, तीन छत्र तुम दिपें अगोप |
तीन लोक की प्रभुता कहें, मोती झालरसों छवि लहें ||३१||

दुंदुभि-शब्द गहर गंभीर, चहुँ दिशि होय तुम्हारे धीर |
त्रिभुवन-जन शिव-संगम करें, मानो जय-जय रव उच्चरें ||३२||

मंद पवन गंधोदक इष्ट, विविध कल्पतरु पुहुप सुवृष्ट |
देव करें विकसित दल सार, मानो द्विज-पंकति अवतार ||३३||

तुम तन-भामंडल जिन-चंद, सब दुतिवंत करत हैं मंद |
कोटि संख्य रवि-तेज छिपाय, शशि निर्मल निशि करे अछाय ||३४||

स्वर्ग-मोख-मारग संकेत, परम-धरम उपदेशन हेत |
दिव्य वचन तुम खिरें अगाध, सब भाषा-गर्भित हित-साध ||३५||

विकसित-सुवरन-कमल-दुति, नख-दुति मिलि चमकाहिं |
तुम पद पदवी जहँ धरो, तहँ सुर कमल रचाहिं ||३६||

ऐसी महिमा तुम-विषै, और धरे नहिं कोय |
सूरज में जो जोत है, नहिं तारा-गण होय ||३७||

मद-अवलिप्त-कपोल-मूल अलि-कुल झँकारें |
तिन सुन शब्द प्रचंड क्रोध उद्धत अति धारें ||
काल-वरन विकराल कालवत् सनमुख आवे |
ऐरावत सो प्रबल सकल जन भय उपजावे ||
देखि गयंद न भय करे, तुम पद-महिमा लीन |
विपति-रहित संपति-सहित, वरतैं भक्त अदीन ||३८||

अति मद-मत्त गयंद कुंभ-थल नखन विदारे |
मोती रक्त समेत डारि भूतल सिंगारे ||
बाँकी दाढ़ विशाल वदन में रसना लोले |
भीम भयानक रूप देख जन थरहर डोले ||
ऐसे मृग-पति पग-तले, जो नर आयो होय |
शरण गये तुम चरण की, बाधा करे न सोय ||३९||

प्रलय-पवनकरि उठी आग जो तास पटंतर |
वमे फुलिंग शिखा उतंग पर जले निरंतर ||
जगत् समस्त निगल्ल भस्म कर देगी मानो |
तड़-तड़ाट दव-अनल जोर चहुँ-दिशा उठानो ||
सो इक छिन में उपशमे, नाम-नीर तुम लेत |
होय सरोवर परिनमे, विकसित-कमल समेत ||४०||

कोकिल-कंठ-समान श्याम-तन क्रोध जलंता |
रक्त-नयन फुंकार मार विष-कण उगलंता ||
फण को ऊँचा करे वेगि ही सन्मुख धाया |
तव जन होय नि:शंक देख फणपति को आया ||
जो चाँपे निज पग-तले, व्यापे विष न लगार |
नाग-दमनि तुम नाम की, है जिनके आधार ||४१||

जिस रन माहिं भयानक रव कर रहे तुरंगम |
घन-सम गज गरजाहिं मत्त मानों गिरि-जंगम ||
अति-कोलाहल-माँहिं बात जहँ नाहिं सुनीजे |
राजन को परचंड देख बल धीरज छीजे ||
नाथ तिहारे नाम तें, अघ छिन माँहि पलाय |
ज्यों दिनकर परकाश तें, अंधकार विनशाय ||४२||

मारें जहाँ गयंद-कुंभ हथियार विदारे |
उमगे रुधिर-प्रवाह वेग जल-सम विस्तारे ||
होय तिरन असमर्थ महाजोधा बलपूरे |
तिस रन में जिन तोर भक्त जे हैं नर सूरे ||
दुर्जय अरिकुल जीतके, जय पावें निकलंक |
तुम पद-पंकज मन बसें, ते नर सदा निशंक ||४३||

नक्र चक्र मगरादि मच्छ-करि भय उपजावे |
जा में बड़वा अग्नि दाह तें नीर जलावे ||
पार न पावे जास थाह नहिं लहिये जाकी |
गरजे अतिगंभीर लहर की गिनति न ताकी ||
सुख सों तिरें समुद्र को, जे तुम गुन सुमिराहिं |
लोल-कलोलन के शिखर, पार यान ले जाहिं ||४४||

महा जलोदर रोग-भार पीड़ित नर जे हैं |
वात पित्त कफ कुष्ट आदि जो रोग गहे हैं ||
सोचत रहें उदास नाहिं जीवन की आशा |
अति घिनावनी देह धरें दुर्गंधि-निवासा ||
तुम पद-पंकज-धूल को, जो लावें निज-अंग |
ते नीरोग शरीर लहि, छिन में होंय अनंग ||४५||

पाँव कंठ तें जकड़ बाँध साँकल अतिभारी |
गाढ़ी बेड़ी पैर-माहिं जिन जाँघ विदारी ||
भूख-प्यास चिंता शरीर-दु:ख जे विललाने |
सरन नाहिं जिन कोय भूप के बंदीखाने ||
तुम सुमिरत स्वयमेव ही, बंधन सब खुल जाहिं |
छिन में ते संपति लहें, चिंता भय विनसाहिं ||४६||

महामत्त गजराज और मृगराज दवानल |
फणपति रण-परचंड नीर-निधि रोग महाबल ||
बंधन ये भय आठ डरपकर मानों नाशे |
तुम सुमिरत छिनमाहिं अभय थानक परकाशे ||
इस अपार-संसार में, शरन नाहिं प्रभु कोय |
या तें तुम पद-भक्त को, भक्ति सहाई होय ||४७||

यह गुनमाल विशाल नाथ! तुम गुनन सँवारी |
विविध-वर्णमय-पुहुप गूँथ मैं भक्ति विथारी ||
जे नर पहिरें कंठ भावना मन में भावें |
मानतुंग’-सम निजाधीन शिवलक्ष्मी पावें ||
भाषा-भक्तामर कियो, ‘हेमराज’ हित-हेत |
जे नर पढ़ें सुभाव-सों, ते पावें शिव-खेत ||४८||

भक्तामर स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित / Bhaktamar Stotra Hindi Arth Sahit

(भक्तामर स्तोत्र के प्रथम श्लोक का अर्थ)

झुके हुए भक्त देवो के मुकुट जड़ित मणियों की प्रथा को प्रकाशित करने वाले, पाप रुपी अंधकार के समुह को नष्ट करने वाले, कर्मयुग के प्रारम्भ में संसार समुन्द्र में डूबते हुए प्राणियों के लिये आलम्बन भूत जिनेन्द्रदेव के चरण युगल को मन वचन कार्य से प्रणाम करके (मैं मुनि मानतुंग उनकी स्तुति करुँगा)|

(भक्तामर स्तोत्र के द्वितीय श्लोक का अर्थ)

सम्पूर्णश्रुतज्ञान से उत्पन्न हुई बुद्धि की कुशलता से इन्द्रों के द्वारा तीन लोक के मन को हरने वाले, गंभीर स्तोत्रों के द्वारा जिनकी स्तुति की गई है उन आदिनाथ जिनेन्द्र की निश्चय ही मैं (मानतुंग) भी स्तुति करुँगा।

(भक्तामर स्तोत्र के तृतीय श्लोक का अर्थ)

देवों के द्वारा पूजित हैं सिंहासन जिनका, ऐसे हे जिनेन्द्र मैं बुद्धि रहित होते हुए भी निर्लज्ज होकर स्तुति करने के लिये तत्पर हुआ हूँ क्योंकि जल में स्थित चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को बालक को छोड़कर दूसरा कौन मनुष्य सहसा पकड़ने की इच्छा करेगा? अर्थात् कोई नहीं।

(भक्तामर स्तोत्र के चतुर्थ श्लोक का अर्थ)

हे गुणों के भंडार! आपके चन्द्रमा के समान सुन्दर गुणों को कहने लिये ब्रहस्पति के सद्रश भी कौन पुरुष समर्थ है? अर्थात् कोई नहीं अथवा प्रलयकाल की वायु के द्वारा प्रचण्ड है मगरमच्छों का समूह जिसमें ऐसे समुद्र को भुजाओं के द्वारा तैरने के लिए कौन समर्थ है अर्थात् कोई नहीं।

(भक्तामर स्तोत्र के पांचवें श्लोक का अर्थ)

हे मुनीश! तथापि-शक्ति रहित होता हुआ भी, मैं- अल्पज्ञ, भक्तिवश, आपकी स्तुति करने को तैयार हुआ हूँ  | हरिणि, अपनी शक्ति का विचार न कर, प्रीतिवश अपने शिशु की रक्षा के लिये, क्या सिंह के सामने नहीं जाती? अर्थात जाती हैं।

(भक्तामर स्तोत्र के छठे श्लोक का अर्थ)

विद्वानों की हँसी के पात्र, मुझ अल्पज्ञानी को आपकी भक्ति ही बोलने को विवश करती हैं | बसन्त ऋतु में कोयल जो मधुर शब्द करती है उसमें निश्चय से आम्र कलिका ही एक मात्र कारण हैं।

(भक्तामर स्तोत्र के सातवें श्लोक का अर्थ)

आपकी स्तुति से, प्राणियों के, अनेक जन्मों में बाँधे गये पाप कर्म क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं जैसे सम्पूर्ण लोक में व्याप्त रात्री का अंधकार सूर्य की किरणों से क्षणभर में छिन्न भिन्न हो जाता है।

(भक्तामर स्तोत्र के आठवें श्लोक का अर्थ)

हे स्वामिन्! ऐसा मानकर मुझ मन्दबुद्धि के द्वारा भी आपका यह स्तवन प्रारम्भ किया जाता है, जो आपके प्रभाव से सज्जनों के चित्त को हरेगा| निश्चय से पानी की बूँद कमलिनी के पत्तों पर मोती के समान शोभा को प्राप्त करती हैं।

(भक्तामर स्तोत्र के नौंवें श्लोक का अर्थ)

सम्पूर्ण दोषों से रहित आपका स्तवन तो दूर, आपकी पवित्र कथा भी प्राणियों के पापों का नाश कर देती है | जैसे, सूर्य तो दूर, उसकी प्रभा ही सरोवर में कमलों को विकसित कर देती है।

(भक्तामर स्तोत्र के दसवें श्लोक का अर्थ)

हे जगत् के भूषण! हे प्राणियों के नाथ! सत्यगुणों के द्वारा आपकी स्तुति करने वाले पुरुष पृथ्वी पर यदि आपके समान हो जाते हैं तो इसमें अधिक आश्चर्य नहीं है| क्योंकि उस स्वामी से क्या प्रयोजन, जो इस लोक में अपने अधीन पुरुष को सम्पत्ति के द्वारा अपने समान नहीं कर लेता।

(भक्तामर स्तोत्र के ग्यारहवें श्लोक का अर्थ)

हे अभिमेष दर्शनीय प्रभो ! आपके दर्शन के पश्चात् मनुष्यों के नेत्र अन्यत्र सन्तोष को प्राप्त नहीं होते | चन्द्रकीर्ति के समान निर्मल क्षीरसमुद्र के जल को पीकर कौन पुरुष समुद्र के खारे पानी को पीना चाहेगा ? अर्थात् कोई नहीं।

(भक्तामर स्तोत्र के बारहवें श्लोक का अर्थ)

हे त्रिभुवन के एकमात्र आभुषण जिनेन्द्रदेव! जिन रागरहित सुन्दर परमाणुओं के द्वारा आपकी रचना हुई वे परमाणु पृथ्वी पर निश्चय से उतने ही थे क्योंकि आपके समान दूसरा रूप नहीं है।

(भक्तामर स्तोत्र के तेरहवें श्लोक का अर्थ)

हे प्रभो! सम्पूर्ण रुप से तीनों जगत् की उपमाओं का विजेता, देव मनुष्य तथा धरणेन्द्र के नेत्रों को हरने वाला कहां आपका मुख? और कलंक से मलिन, चन्द्रमा का वह मण्डल कहां? जो दिन में पलाश (ढाक) के पत्ते के समान फीका पड़ जाता।

(भक्तामर स्तोत्र के चौदहवे श्लोक का अर्थ)

पूर्ण चन्द्र की कलाओं के समान उज्ज्वल आपके गुण, तीनों लोको में व्याप्त हैं क्योंकि जो अद्वितीय त्रिजगत् के भी नाथ के आश्रित हैं उन्हें इच्छानुसार घुमते हुए कौन रोक सकता हैं? कोई नहीं।

(भक्तामर स्तोत्र के 15 वें श्लोक का अर्थ)

यदि आपका मन देवागंनाओं के द्वारा किंचित् भी विक्रति को प्राप्त नहीं कराया जा सका, तो इस विषय में आश्चर्य ही क्या है? पर्वतों को हिला देने वाली प्रलयकाल की पवन के द्वारा क्या कभी मेरु का शिखर हिल सका है? नहीं।

(भक्तामर स्तोत्र के 16 वें श्लोक का अर्थ)

हे स्वामिन्! आप धूम तथा बाती से रहित, तेल के प्रवाह के बिना भी इस सम्पूर्ण लोक को प्रकट करने वाले अपूर्व जगत् प्रकाशक दीपक हैं जिसे पर्वतों को हिला देने वाली वायु भी कभी बुझा नहीं सकती।

(भक्तामर स्तोत्र के 17 वें श्लोक का अर्थ)

हे मुनीन्द्र! आप न तो कभी अस्त होते हैं न ही राहु के द्वारा ग्रसे जाते हैं और न आपका महान तेज मेघ से तिरोहित होता है आप एक साथ तीनों लोकों को शीघ्र ही प्रकाशित कर देते हैं अतः आप सूर्य से भी अधिक महिमावन्त हैं।

(भक्तामर स्तोत्र के 18 वें श्लोक का अर्थ)

हमेशा उदित रहने वाला, मोहरुपी अंधकार को नष्ट करने वाला जिसे न तो राहु ग्रस सकता है, न ही मेघ आच्छादित कर सकते हैं, अत्यधिक कान्तिमान, जगत को प्रकाशित करने वाला आपका मुखकमल रुप अपूर्व चन्द्रमण्डल शोभित होता है।

(भक्तामर स्तोत्र के 19 वें श्लोक का अर्थ)

हे स्वामिन्! जब अंधकार आपके मुख रुपी चन्द्रमा के द्वारा नष्ट हो जाता है तो रात्रि में चन्द्रमा से एवं दिन में सूर्य से क्या प्रयोजन? पके हुए धान्य के खेतों से शोभायमान धरती तल पर पानी के भार से झुके हुए मेघों से फिर क्या प्रयोजन।

(भक्तामर स्तोत्र के 20 वें श्लोक का अर्थ)

अवकाश को प्राप्त ज्ञान जिस प्रकार आप में शोभित होता है वैसा विष्णु महेश आदि देवों में नहीं | कान्तिमान मणियों में, तेज जैसे महत्व को प्राप्त होता है वैसे किरणों से व्याप्त भी काँच के टुकड़े में नहीं होता।

(भक्तामर स्तोत्र के 21 वें श्लोक का अर्थ)

हे स्वामिन्। देखे गये विष्णु महादेव ही मैं उत्तम मानता हूँ, जिन्हें देख लेने पर मन आपमें सन्तोष को प्राप्त करता है| किन्तु आपको देखने से क्या लाभ? जिससे कि प्रथ्वी पर कोई दूसरा देव जन्मान्तर में भी चित्त को नहीं हर पाता।

(भक्तामर स्तोत्र के 22 वें श्लोक का अर्थ)

सैकड़ों स्त्रियाँ सैकड़ों पुत्रों को जन्म देती हैं, परन्तु आप जैसे पुत्र को दूसरी माँ उत्पन्न नहीं कर सकी। नक्षत्रों को सभी दिशायें धारण करती हैं परन्तु कान्तिमान् किरण समूह से युक्त सूर्य को पूर्व दिशा ही जन्म देती हैं।

(भक्तामर स्तोत्र के 23 वें श्लोक का अर्थ)

हे मुनीन्द्र! तपस्वीजन आपको सूर्य की तरह तेजस्वी निर्मल और मोहान्धकार से परे रहने वाले परम पुरुष मानते हैं। वे आपको ही अच्छी तरह से प्राप्त कर म्रत्यु को जीतते हैं | इसके सिवाय मोक्षपद का दूसरा अच्छा रास्ता नहीं है।

(भक्तामर स्तोत्र के 24 वें श्लोक का अर्थ)

सज्जन पुरुष आपको शाश्वत, विभु, अचिन्त्य, असंख्य, आद्य, ब्रह्मा, ईश्वर, अनन्त, अनंगकेतु, योगीश्वर, विदितयोग, अनेक, एक ज्ञानस्वरुप और अमल कहते हैं।

(भक्तामर स्तोत्र के 25 वें श्लोक का अर्थ)

देव अथवा विद्वानों के द्वारा पूजित ज्ञान वाले होने से आप ही बुद्ध हैं। तीनों लोकों में शान्ति करने के कारण आप ही शंकर हैं। हे धीर! मोक्षमार्ग की विधि के करने वाले होने से आप ही ब्रह्मा हैं, और हे स्वामिन्! आप ही स्पष्ट रुप से मनुष्यों में उत्तम अथवा नारायण हैं।

(भक्तामर स्तोत्र के 26 वें श्लोक का अर्थ)

हे स्वामिन्! तीनों लोकों के दुःख को हरने वाले आपको नमस्कार हो, प्रथ्वीतल के निर्मल आभुषण स्वरुप आपको नमस्कार हो, तीनों जगत् के परमेश्वर आपको नमस्कार हो और संसार समुन्द्र को सुखा देने वाले आपको नमस्कार हो।

(भक्तामर स्तोत्र के 27वें श्लोक का अर्थ)

हे मुनीश! अन्यत्र स्थान न मिलने के कारण समस्त गुणों ने यदि आपका आश्रय लिया हो तो तथा अन्यत्र अनेक आधारों को प्राप्त होने से अहंकार को प्राप्त दोषों ने कभी स्वप्न में भी आपको न देखा हो तो इसमें क्या आश्चर्य?

(भक्तामर स्तोत्र के 28 वें श्लोक का अर्थ)

ऊँचे अशोक वृक्ष के नीचे स्थित, उन्नत किरणों वाला, आपका उज्ज्वल रुप जो स्पष्ट रुप से शोभायमान किरणों से युक्त है, अंधकार समूह के नाशक, मेघों के निकट स्थित सूर्य बिम्ब की तरह अत्यन्त शोभित होता है।

(भक्तामर स्तोत्र के 29 वें श्लोक का अर्थ)

मणियों की किरण-ज्योति से सुशोभित सिंहासन पर, आपका सुवर्ण कि तरह उज्ज्वल शरीर, उदयाचल के उच्च शिखर पर आकाश में शोभित, किरण रुप लताओं के समूह वाले सूर्य मण्डल की तरह शोभायमान हो रहा है।

(भक्तामर स्तोत्र के 30 वें श्लोक का अर्थ)

कुन्द के पुष्प के समान धवल चँवरों के द्वारा सुन्दर है शोभा जिसकी, ऐसा आपका स्वर्ण के समान सुन्दर शरीर, सुमेरुपर्वत, जिस पर चन्द्रमा के समान उज्ज्वल झरने के जल की धारा बह रही है, के स्वर्ण निर्मित ऊँचे तट की तरह शोभायमान हो रहा है।

(भक्तामर स्तोत्र के 31 वें श्लोक का अर्थ)

चन्द्रमा के समान सुन्दर, सूर्य की किरणों के सन्ताप को रोकने वाले, तथा मोतियों के समूहों से बढ़ती हुई शोभा को धारण करने वाले, आपके ऊपर स्थित तीन छत्र, मानो आपके तीन लोक के स्वामित्व को प्रकट करते हुए शोभित हो रहे हैं।

(भक्तामर स्तोत्र के 32 वें श्लोक का अर्थ)

गम्भीर और उच्च शब्द से दिशाओं को गुञ्जायमान करने वाला, तीन लोक के जीवों को शुभ विभूति प्राप्त कराने में समर्थ और समीचीन जैन धर्म के स्वामी की जय घोषणा करने वाला दुन्दुभि वाद्य आपके यश का गान करता हुआ आकाश में शब्द करता है।

(भक्तामर स्तोत्र के 33 वें श्लोक का अर्थ)

सुगंधित जल बिन्दुओं और मन्द सुगन्धित वायु के साथ गिरने वाले श्रेष्ठ मनोहर मन्दार, सुन्दर, नमेरु, पारिजात, सन्तानक आदि कल्पवृक्षों के पुष्पों की वर्षा आपके वचनों की पंक्तियों की तरह आकाश से होती है।

(भक्तामर स्तोत्र के 34 वें श्लोक का अर्थ)

हे प्रभो! तीनों लोकों के कान्तिमान पदार्थों की प्रभा को तिरस्कृत करती हुई आपके मनोहर भामण्डल की विशाल कान्ति एक साथ उगते हुए अनेक सूर्यों की कान्ति से युक्त होकर भी चन्द्रमा से शोभित रात्रि को भी जीत रही है।

(भक्तामर स्तोत्र के 35 वें श्लोक का अर्थ)

आपकी दिव्यध्वनि स्वर्ग और मोक्षमार्ग की खोज में साधक, तीन लोक के जीवों को समीचीन धर्म का कथन करने में समर्थ, स्पष्ट अर्थ वाली, समस्त भाषाओं में परिवर्तित करने वाले स्वाभाविक गुण से सहित होती है।

(भक्तामर स्तोत्र के 36 वें श्लोक का अर्थ)

पुष्पित नव स्वर्ण कमलों के समान शोभायमान नखों की किरण प्रभा से सुन्दर आपके चरण जहाँ पड़ते हैं वहाँ देव गण स्वर्ण कमल रच देते हैं।

(भक्तामर स्तोत्र के 37 वें श्लोक का अर्थ)

हे जिनेन्द्र! इस प्रकार धर्मोपदेश के कार्य में जैसा आपका ऐश्वर्य था वैसा अन्य किसी का नही हुआ| अंधकार को नष्ट करने वाली जैसी प्रभा सूर्य की होती है वैसी अन्य प्रकाशमान भी ग्रहों की कैसे हो सकती है?

(भक्तामर स्तोत्र के 38 वें श्लोक का अर्थ)

आपके आश्रित मनुष्यों को, झरते हुए मद जल से जिसके गण्डस्थल मलीन, कलुषित तथा चंचल हो रहे है और उन पर उन्मत्त होकर मंडराते हुए काले रंग के भौरे अपने गुजंन से क्रोध बढा़ रहे हों ऐसे ऐरावत की तरह उद्दण्ड, सामने आते हुए हाथी को देखकर भी भय नहीं होता।

(भक्तामर स्तोत्र के 39 वें श्लोक का अर्थ)

सिंह, जिसने हाथी का गण्डस्थल विदीर्ण कर, गिरते हुए उज्ज्वल तथा रक्तमिश्रित गजमुक्ताओं से पृथ्वी तल को विभूषित कर दिया है तथा जो छलांग मारने के लिये तैयार है वह भी अपने पैरों के पास आये हुए ऐसे पुरुष पर आक्रमण नहीं करता जिसने आपके चरण युगल रुप पर्वत का आश्रय ले रखा है।

(भक्तामर स्तोत्र के 40 वें श्लोक का अर्थ)

आपके नाम यशोगानरुपी जल, प्रलयकाल की वायु से उद्धत, प्रचण्ड अग्नि के समान प्रज्वलित, उज्ज्वल चिनगारियों से युक्त, संसार को भक्षण करने की इच्छा रखने वाले की तरह सामने आती हुई वन की अग्नि को पूर्ण रुप से बुझा देता है।

(भक्तामर स्तोत्र के 41 वें श्लोक का अर्थ)

जिस पुरुष के ह्रदय में नामरुपी-नागदौन नामक औषध मौजूद है, वह पुरुष लाल लाल आँखो वाले, मदयुक्त कोयल के कण्ठ की तरह काले, क्रोध से उद्धत और ऊपर को फण उठाये हुए, सामने आते हुए सर्प को निश्शंक होकर दोनों पैरो से लाँघ जाता है।

(भक्तामर स्तोत्र के 42 वें श्लोक का अर्थ)

आपके यशोगान से युद्धक्षेत्र में उछलते हुए घोडे़ और हाथियों की गर्जना से उत्पन भयंकर कोलाहल से युक्त पराक्रमी राजाओं की भी सेना, उगते हुए सूर्य किरणों की शिखा से वेधे गये अंधकार की तरह शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाती है।

(भक्तामर स्तोत्र के 43 वें श्लोक का अर्थ)

हे भगवन् आपके चरण कमलरुप वन का सहारा लेने वाले पुरुष, भालों की नोकों से छेद गये हाथियों के रक्त रुप जल प्रवाह में पडे़ हुए, तथा उसे तैरने के लिये आतुर हुए योद्धाओं से भयानक युद्ध में, दुर्जय शत्रु पक्ष को भी जीत लेते हैं।

(भक्तामर स्तोत्र के 44 वें श्लोक का अर्थ)

क्षोभ को प्राप्त भयंकर मगरमच्छों के समूह और मछलियों के द्वारा भयभीत करने वाले दावानल से युक्त समुद्र में विकराल लहरों के शिखर पर स्थित है जहाज जिनका, ऐसे मनुष्य, आपके स्मरण मात्र से भय छोड़कर पार हो जाते हैं।

(भक्तामर स्तोत्र के 45 वें श्लोक का अर्थ)

उत्पन्न हुए भीषण जलोदर रोग के भार से झुके हुए, शोभनीय अवस्था को प्राप्त और नहीं रही है जीवन की आशा जिनके, ऐसे मनुष्य आपके चरण कमलों की रज रुप अम्रत से लिप्त शरीर होते हुए कामदेव के समान रुप वाले हो जाते हैं।

(भक्तामर स्तोत्र के 46 वें श्लोक का अर्थ)

जिनका शरीर पैर से लेकर कण्ठ पर्यन्त बडी़-बडी़ सांकलों से जकडा़ हुआ है और विकट सघन बेड़ियों से जिनकी जंघायें अत्यन्त छिल गईं हैं ऐसे मनुष्य निरन्तर आपके नाममंत्र को स्मरण करते हुए शीघ्र ही बन्धन मुक्त हो जाते है।

(भक्तामर स्तोत्र के 47 वें श्लोक का अर्थ)

जो बुद्धिमान मनुष्य आपके इस स्तवन को पढ़ता है उसका मत्त हाथी, सिंह, दवानल, युद्ध, समुद्र जलोदर रोग और बन्धन आदि से उत्पन्न भय मानो डरकर शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाता है।

(भक्तामर स्तोत्र के 48 वें श्लोक का अर्थ)

हे जिनेन्द्र देव! इस जगत् में जो लोग मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक (ओज, प्रसाद, माधुर्य आदि) गुणों से रची गई नाना अक्षर रुप, रंग बिरंगे फूलों से युक्त आपकी स्तुति रुप माला को कंठाग्र करता है उस उन्नत सम्मान वाले पुरुष को अथवा आचार्य मानतुंग को स्वर्ग मोक्षादि की विभूति अवश्य प्राप्त होती है।

भक्तामर स्तोत्र पाठ पढ़ने की विधि

भक्तामर स्तोत्र पढ़ने का कोई एक निश्चित नियम नहीं है। भक्तामर स्तोत्र को किसी भी समय जैसे – प्रात:काल, दोपहर, सायंकाल या रात में किसी भी समय पढ़ा जा सकता है। इसकी कोई समयसीमा निश्चित नहीं है, क्योंकि ये सिर्फ भक्ति प्रधान स्तोत्र हैं जिसमें भगवान की स्तुति है। धुन तथा समय का प्रभाव अलग-अलग होता है।

भक्तामर स्तोत्र का प्रसिद्ध तथा सर्वसिद्धिदायक महामंत्र –

‘ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं अर्हं श्री वृषभनाथतीर्थंकराय् नम:।

भक्तामर स्तोत्र के लाभ / Bhaktamar Stotra Benefits in Hindi

  • भक्तामर स्तोत्र का पाठ प्रत्येक संकट के लिए सबसे सुलभ उपाय माना जाता है इसीलिए इस स्तोत्र का पाठ अवश्य करना चाहिए।
  • इस दिव्य स्तोत्र का पाठ करने से भगवान के भक्तों को जीवन में आने वाली सभी समस्याओं से छुटकारा मिल जाता है।
  • यदि कोई व्यक्ति बहुत समय से किसी भी प्रकार के रोग, शोक एवं कष्ट से घिरा हुआ हो तो इस स्तोत्र का पाठ करने से विशेष लाभ प्राप्त होता है।
  • ऐसा भी माना जाता है कि भक्तामर स्तोत्र के नियमित पाठ करने से कैंसर जैसे बीमारी से भी मुक्ति मिल सकती है।
  • भक्तामर स्तोत्र का श्रद्धा भाव से पाठ करने से घर में सुख-शांति एवं समृद्धि का आगमन होता है।
  • माना जाता है कि भक्तामर स्तोत्र का पाठ सभी प्रकार के पापों से मुक्ति दिलने में भी सहायक होता है।

नीचे दिए गए डाउनलोड बटन के माध्यम से आप भक्तामर स्तोत्र संस्कृत PDF डाउनलोड कर सकते हैं।


भक्तामर स्तोत्र हिंदी | Bhaktamar Stotra PDF Download Link

Report a Violation
If the download link of Gujarat Manav Garima Yojana List 2022 PDF is not working or you feel any other problem with it, please Leave a Comment / Feedback. If भक्तामर स्तोत्र हिंदी | Bhaktamar Stotra is a copyright, illigal or abusive material Report a Violation. We will not be providing its PDF or any source for downloading at any cost.

RELATED PDF FILES

Leave a Reply

Your email address will not be published.

हिन्दी | Hindi PDF